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मुहर्रम में ढोल,ताशा और ताजिया क्यों?

मुहर्रम में ढोल,ताशा और ताजिया क्यों : ये सवाल हर एक मुसलमान को खुद से पूछना चाहिए कि क्या मुहर्रम में ढोल,ताशा और ताज़िया के लिए इस्लाम इजाज़त देता है? अगर इस्लाम में इजाज़त नहीं तो फिर किस बिना पे इतना बड़ा गुनाह और विद्दत किया जाता है? कुछ सीधे सादे मुसलमान कहते हैं कि हिंदुओं पर दबदबा डालने के लिए मौलाना लोगों ने कहा है कि मुहर्रम का जश्न मनाना ठीक है. क्या इस्लाम मुल्ले मोलविओं के बाप की जागीर है? क्या ढोल,ताशा,लाठी और ताजिया से हिंदुओं पर दबदबा पड़ सकता है? किसी दूसरे कौम पर दबदबा डालने के लिए क्या इस्लाम इजाज़त देता है कि गुनाह और विद्दत किया जाये?

कितनी हैरत की बात है कि मुहर्रम में एक मुद्दत से ढोल,ताशा,लाठी और ताज़िया का रिवाज़ चला आ रहा है, लेकिन आज तक किसी मौलाना के द्वारा मुहर्रम में होने वाले तमाशा के खिलाफ रोक थाम या फतवा जारी नहीं किया गया? आखिर क्यों? इस्लाम में मुहर्रम का क्या हकीकत है ये बात क्यों नहीं बताई जाती है? दुनिया के किसी भी इस्लामिक किताब में मुहर्रम के मौके से ढोल ताशा,ताज़िया की इजाज़त नहीं है,अगर किसी को ऐसा लगता है की इजाज़त है तो अपने माँ बाप के मौत पर भी ढोल ताशा क्यों नहीं बजवाते हो? अब मैं आगे हदीस और इस्लामिक इतिहास की रौशनी में मोहर्रम के बारे में बताऊँगा!

Moharram me dhol tasha aur tajiya
Moharram festival 

मुहर्रम 10 आशूरा के बारे में पैगम्बर हज़रत मोहम्मद स.व.स का इरशाद

Moharram ka jashn manana kaisa hai
Moharram ka jashn


हज़रत अबू हुरैरह रज़ियल्लाह से रिवायत है कि नबी सल्ललाहेवलैहिस्लम से सवाल किया गया की फ़र्ज़ नमाज़ के बाद सब से अफज़ल नमाज़ कौन सी है? आप ने फ़रमाया,रात के दरमियानी हिस्से की नमाज़, फिर सवाल किया गया कि रमज़ान के बाद सब से अफज़ल रोज़ह कौन सा है? आप ने फ़रमाया: अल्लाह के उस महीने के रोज़े जिससे तुम मुहर्रम कहते हो (अहमद,मुस्लिम,अबूदावूद).

हज़रत आयेशा रज़ियल्लाह से रिवायत है की इस्लाम से पहले क़ुरैश आशूरा (10 मुहर्रम ) का रोज़ा रखा करते थे,और नबी स.व.स भी ये रोज़े रखा करते थे,जब आप मदीना तशरीफ़ लाये तो वहां भी आप ने यह रोज़ा रखा और लोगों को भी उसके रखने का हुक्म दिया, लेकिन जब रमजान के रोजे फर्ज हो गये तो आप ने फ़रमाया " जो चाहे इस दिन का रोज़ा रखे और जो चाहे न रखे" (बुखारी,मुस्लिम).

हज़रत अबू मूसा रज़ियल्लाह से रिवायत है के यहूदी आशूरा के दिन की ताज़ीम किया करते थे और इस दिन ईद मनाते थे इस पर नबी स.व.स, ने फ़रमाया (मुसलमानों से): इस दिन का तुम रोज़ा रखो (बुखारी,मुस्लिम).

हज़रत इब्न अब्बास से रिवायत हैं कि नबी.स.व.स. ने यहुदिओं को आशूरा के दिन रोज़ा रखते देखा,तो दरयाफ़्त फ़रमाया " यह क्या है" (यानी तुम इस दिन क्यूँ रोज़ा रखते हो), उन्होंने कहा " यह एक नेक दिन है इसमें अल्लाह ने मूसा और बनी इस्राइल को उनके दुश्मन से निजात दी थी, और उस पर मूसा ने रोज़ा रखा था,आप ने फ़रमाया : मूसा पर हमारा हक़ तुम से ज्यादा है" फिर आप (स.व.स) ने उस दिन का खुद भी रोज़ा रखा और लोगों को भी उसके रखने का हुक्म दिया (बुखारी,मुस्लिम).

एक दूसरी रिवायत से मालूम होता है कि नबी स.व.स. ने 9-10-11 मुहर्रम को भी रोज़ा रखने का हुक्म दिया और मुहर्रम का रोज़ा रखना मस्नून है, मुहर्रम में जश्न मनना,होलो-होलो करना और मेला लगाने का हुक्म नहीं दिया है,ढोल ताशा ,लाठी और ताजिया का हुक्म नहीं दिया है.

हो सकता है कि कुछ लोग यह कहेंगे कि नबी के वक़्त में इमाम हुसैन की शहादत कहाँ हुई थी हम तो इमाम हुसैन की शहादत के लिए मातम करते हैं, ठीक है मै इमाम हुसैन की शहादत की बात भी लिखूंगा लेकिन पहले यह बताओ के नबी के नवासे के शहादत पर ढोल ताशा जश्न और मेला और तुम्हारे माँ बाप के मौत पर हफ़्तों मातम करते हो और हफ़्तों दूसरे के घरों का गोश्त पुलाओ तोड़ते हो क्यों?? अपने माँ बाप के मौत पर भी ढोल ताशा बजवाओ फिर नबी के नवासे की शहादत पर ढोल ताशा बजवाना.

यह रखना नबी पाक स.व.स. ने दुनिया में ही अपने नवासे हज़रत इमाम हसन और इमाम हुसैन को जन्नत की बशारत दे दी थी और फ़रमाया था कि मेरे हसन और हुसैन जन्नत के नौजवानों के सरदार होंगे, शर्म करो मुस्लमानो तुम उनके शहादत का जश्न मनाते हो?मेला लगाते हो?यहाँ तक के तुम अपने जश्न में कोई कसर नहीं छोड़ते हो, यक़ीन मानो यह गुमराही,यह विद्दत,ये अज़ीम गुनाह तुम्हें जहन्नुम में जरूर ले के जाएगी.


मुहर्रम का जश्न और इमाम हुसैन की शहादत

इराक वालों के दावत पर हज़रत इमाम हुसैन यज़ीद की हुकूमत का तख्ता उलटने के लिए तशरीफ़ ले जा रहे थे,और यज़ीदी हुकूमत उन्हें बाग़ी समझती थी, लेकिन इमाम हुसैन किसी से जंग करने नहीं जा रहे थे,उनके साथ बाल बच्चे और केवल 32 सवार और 40 पयादे थे, इस प्रकार के सफर को कोई भी मनुष्य फौजी चढ़ाई नहीं कह सकता है.

इमाम हुसैन के मुक़ाबले में उमर बिन साद बिन अबी वकास के तहत जो फ़ौज कूफ़ा भेज गयी थी उसकी तादाद 4 हज़ार थी, इतने कम लोगों के लिए इतनी बड़ी फ़ौज की बिलकुल जरुरत नहीं थी अगर वह चाहते तो आसानी से इमाम हुसैन को क़ैद कर सकते थे लेकिन ऐसा नहीं किये, अनजाने में नहीं जानबूझ कर मुसलमानों ने इमाम हुसैन को शहीद किया, याद रखना जिस ने इमाम हुसैन को शहीद किया वह भी मुसलमानो का ही ग्रुप था, मुसलमानों की ही फ़ौज थी!

हज़रत इमाम हुसैन ने आख़री वक़्त में जो कुछ कहा वह यह था के " या तो मुझे वापस जाने दो,या किसी सरहद की तरफ निकल जाने दो,या मुझे यज़ीद के पास ले चलो" लेकिन उनमें से कोई भी बात नहीं मानी गयी और इसरार किया गया की आप को ओबैदुल्लाह बिन जायेद (कूफ़ा के गवर्नर) ही के पास चलना होगा.

खैर आखिर कार उन से जंग की गयी जब उन के सारे साथी शहीद हो चुके थे और वह मैदान जंग में तनहा रह गए, उस वक़्त भी उन पर हमला करना ही जरुरी समझा गया और जब वह जख्मी हो कर गिर पड़े थे उस वक़्त उन को जबह किया गया, फिर उन के जिस्म पर जो कुछ था लूटा गया,यहां तक कि उन के लाश पर से कपडे तक उतार लिए गए, और उस पर घोड़े दौड़ा कर उसे रौंदा गया!

उसके बाद उनके क़यामगाह की तरफ लौट गया और औरतों के जिस्म पर से चादरें तक उतार ली गयी,उसके बाद उन तमाम शोहदाए कर्बला के सर काट कर ख़ुशी में लाठी,ढोल,तशा के साथ कूफ़ा ले जाये गए....मुसलमानो अब तुम ही बताओ तुम यज़ीद के साथ हो या हज़रत इमाम हुसैन के साथ? यज़ीद की ख़ुशी में शरीक हो या हज़रत इमाम हुसैन के मातम में?

तुम नबी स.व.स और उन के नवासे के मानने वाले हो या यज़ीद के मानने वाले? अगर तुम यज़ीद के मानने वाले हो तो कोई बात नहीं ख़ुशी से अपनी ख़ुशी का इज़हार ढोल,ताशा,लाठी,भला, ताजिया और मेला लगा कर करो, अगर तुम नबी पाक स.व.स. और उनके नवासे हज़रत इमाम हुसैन के मानने वाले तो अपने गुनाहों से तौबा करो और क़सम खाओ कि अब यह विद्दत,और अज़ीम गुनाह नहीं करेंगे. अगर शैतान तुम पर क़ाबिज़ है तो तुम्हारी मर्ज़ी.....तुम्हारे लिए जहन्नम का दरवाज़ा भी इंशा-अल्लाह खुला ही रहेगा!

मुहर्रम 10 आशूरा से पहले पहले तक यह बात हर एक मुसलमान तक पंहुचा दो...अपना फ़र्ज़ अदा करो..अल्लाह ने तुम्हें इस दुनिया का बेहतरीन कॉम बनाया है क्यों कि तुम्हारे ऊपर जिम्मेदारी है कि लोगों को बुराई से रोको और भलाई की तरफ़ बुलाओ...यह मैसेज रुकना नहीं चाहिए....

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