Header Ads

मुसलमानो में धार्मिक मतभेद कब से शुरू हुआ और क्यों हुआ?

मुसलमानो में धार्मिक मतभेद कब से शुरू हुआ और क्यों हुआ ये चर्चा करने का विषय है?अब तक दुनिया में जितने भी धर्म पैदा हुए हैं सब में कुछ न कुछ मतभेद रहे हैं. मतभेद का ये मतलब नहीं है के किसी धर्म में खराबी है. धर्म में मतभेद का ये अर्थ होता है के कोई मनुष्य अपनी सोंच धर्म के ऊपर थोपना चाहता है और धर्म के पक्के मानने वाले उसे स्वीकार नहीं करते इसलिए मतभेद शुरू हो जाता है. इसी तरह मुसलमानों में धार्मिक मतभेद शुरू हुआ.

हर धर्म मनुष्य को एक सही रास्ता दिखाता है और उसी मार्ग पे चलने का आदेश देता है जो धर्म के आदेशों का पालन नहीं करता वही लोग धर्म में मतभेद पैदा करते है और अपना एक अलग अपनी सुविधा के अनुसार मार्ग बना लेते हैं.यही से प्रारम्भ होती है धार्मिक मतभेद. मुसलमानों में भी धार्मिक मतभेद हुए हैं जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं.
Musalmano me Dharmik matbhed kab se shuru hua aur kaise shuru hua
Dharmik matbhed

मुसलमानो में धार्मिक मतभेद आज के दौर में

मुसलमानो में पहले से ही मतभेद रहे हैं लेकिन आज के दौर में वो मतभेद बढ़ता ही जा रहा है, पहले मतभेद हुकूमत के लिए थे जिसकी वजह से मुसलमानों के दो गिरोह हो जाते थे,लेकिन आज कल जात पात को ले कर है, जमात को ले कर मुस्लमान में मतभेद होते जा रहे हैं,आज कल भी अगर जमीनी अस्तर पे सोचा जाये तो हुकूमत करने की लालसा ही मुसलमानों में मतभेद पैदा करता जा रहा है !

इस्लाम के मानने वाले मुस्लमान होते हैं, जब इस्लाम एक है,अल्लाह एक है, नबी एक है, क़ुरान एक है, हदीस एक है फिर आप सोंच के बताओ के मुसलमानो में धार्मिक मतभेद इतने क्यों हैं?एक बहुत खास वजह है, ये बात मैं बहुत जिम्मेदारी से लिख रहा हूँ जिससे मानना ही होगा.मुसलमानो का मालिक बनना, पीर बाबा बनना, मेरे मुट्ठी में कितने मुसलमान हैं,मैं कितने मुसलमानों का मालिक हूँ,मेरे एक इशारे पे कितने मुस्लमान कट मर सकते हैं और मेरे हाथ में मुसलमानो के कितने वोट हैं.

कोई जेहादी जमात है तो कोई तब्लीगी जमात है, कोई बरेलवी है तो कोई देओबंदी है,कोई बाबा निजामुद्दीन का मानने वाला तो कोई अजमेरशरीफ का मानने वाला, कोई अब्दुल कादिर जिलानी का मानने वाला, अजीब अजीब मतभेद हैं. लेकिन सब का एक पीर है सब का एक बाबा है सब का एक मालिक है जिसका दाल रोटी बहुत आराम से चल रहा है.और ऐसे लोगों का देश के राजनितिक में भी बहुत रसूख़ होता है,क्यों के मतभेद का मकसद ही यही होता है.

आप सोच नहीं सकते कि ये लोग मुसलमानों में धार्मिक मतभेद किस किस तरह पैदा किये हैं,कोई कहता है जोर से आमीन बोलो कोई कहता है नहीं धीरे से बोलो इस पर भी मतभेद है.. अरे जाहिलों मतभेद वहां होता जब ये कोई कहता के आमीन नहीं बोलना हैं, आज तक तुम से किसी ने बोला है के आमीन नहीं बोलना है. फिर इस बात को ले कर मुसलमानो में धार्मिक मतभेद क्यों?

कोई कहता है मज़ार पे जाओ पैसे चादर चढ़ाओ अपनी मुराद माँगो,तुम्हारी हर मुराद पूरी हो जाएगी,और हाँ मजार का एक अलग से बाबा है उसकी दुआ भी लो और उसको नज़राना पेश करो,ये भी मुसलमानों में धार्मिक मतभेद का बहुत बड़ी वजह बनता जा रहा है !

जाहिलों एक बात बताओ उस मज़ार वाले बाबा की जब मौत हुई थी तब उसकी नमाज़ जनाज़ा पढ़ी गयी थी या नहीं??बिना जनाज़े के नमाज़ के उसको दफ़न नहीं किया गया होगा,लोगों ने उस के जनाज़े के नमाज़ में क्या दुआ पढ़ी होगी?? तुम्हे तो जनाज़े की दुआ भी याद नहीं होगी..जब वो मज़ाए वाला बाबा कभी तुम्हारी दुआओं का मुहताज़ था, जो बिना जनाज़े के नाज़ पढ़े दफ़न नहीं किया जा सकता था,आज वो तुम्हारी दुआ कैसे सुन लेता है और वो तुम्हारी दुआ अल्लाह तक पंहुचा भी देता है.कुछ जाहिल मुसलमान को समझा बुझा के मुसलमानो में धार्मिक मतभेद पैदा किया गया है.मुसलमानो में धार्मिक मतभेद के लिए उनका ग्रन्थ आज्ञा नहीं देता है.

मुसलमानो में धार्मिक मतभेद कब से शुरू हुआ और क्यों हुआ?

इस्लाम में खिलाफत का खात्मा जिन हालात में हुआ और जिन वजह से हुआ उस वजेह में से एक अहम वजह ये भी था के मुसलमानो में मज़हबी मतभेद शुरू हो चुके थे,उस मतभेद को जमने का मौका इसलिए मिल गया के इस्लाम में खिलाफत अपनी असल बुनियाद पे कायम नहीं रहा,और बादशाहत के निज़ाम में शुरू से ही कोई ऐसा नहीं था के इस मतभेद को ठीक कर सके,

शुरू में ये मतभेद बहुत ज्यादा खतरनाक नहीं थी,राजनितिक और प्रशाशनिक शिकायतों की बिना पे सय्यदना हज़रात उस्मान के ख़िलाफ़ उन के आखरी दौर में उठ खड़ी हुई थी,उस के पीछे न कोई नजरिया और फ़लसफ़ा था न कोई मज़हबी अक़ीदा था मगर जब उस के नतीजे में हज़रत उस्मान की शहादत हो गयी और हज़रात अली के खिलाफत में तलवार के तूफ़ान ने एक जबर्दश्त जंग की सूरत ले ली और जंगे जमल,जंगे सिफ़्फ़ीन,क़ज़िय्यह तहक़ीम और जंगे नेहरुवां के वाक़्यात एक के बाद एक पेश आते चले गए (جنگے جمل ,جنگے سففین ,قضیه,تحکیم اور جنگے نہروان).

इतना सब कुछ होने के बाद जेहन में ये सवाल आने लगा और बहस का टॉपिक बनने लगा के उन सभी जंग में आखिर हक़ पर कौन है और क्यों है??अगर कोई हक़ पे है या नाहक़ पे है तो ये वो किस बिना पे कह सकता है?अगर कोई किसी को हक़ पे साबित कर रहा है तो उस के पास क्या दलील है?कुछ लोगों की अपनी सोच और जाती फायदे के बिना पे अपनी दलील पेश किये लेकिन वो असल बात के लिहाज से बिलकुल राजनीतिक थे,लेकिन ऐसी दलील देने वालों गरोह को कुछ न कुछ दीन्याती बुनियादे देनी पड़ी और इस तरह राजनितिक फ़िरक़े धीरे धीरे मज़हबी फ़िरक़ों में बदल गया,

क्रोध और रक्त की शुरुवात हुई थी वो उस के बाद बनी उम्मैयह और बनी अब्बास के दौर में लगातार होता रहा ,अब ये मतभेद सिर्फ अक़ीदेह और ख़यालात के मतभेद नहीं रहे बल्कि उन में शिद्दत हड़त पैदा होती चली गयी,जिस ने मुसलमानो के एकता को खतरे में डाल दिया,मतभेद की बातें घर घर होने लगी,हर बहस में नए नए राजनीतिक .दीन्याती और फलसफ्याना बात निकलते रहे,हर नए मसले के उठने पे फ़िरक़े और फ़िरक़ों के अंदर और भी छोटे छोटे फ़िरक़े बनने लगे,फिर उन फ़िरक़ों में नफ़रत ही पैदा नहीं हुए बल्कि लड़ाई और फ़साद तक की नौबत पहुँच गयी,कूफ़ा और इराक इस तूफ़ान का सब से बड़ा मरकज़ था,क्यों के इराक में ही जमल ,सिफ़्फ़ीन और नेहरुवां के जंग हुए थे, यही हज़रात हुसैन की शहादत का दिल दहला देने वाला वाकया पेश आया, इराक़ में में ही तमाम बड़े बड़े फ़िरक़ों की पैदाइश हुयी !

सारांश

आप का अपना हॉलीविशेर आज आप के लिए लाया था मुसलमानों में धार्मिक मतभेद कब से और क्यों हुआ,मैं आशा करता हूँ के ये लेख मुसलमानो में धार्मिक मतभेद आप को पसंद आएगा और आप मुझे कमेंट कर के बतायेंगे,अगर पोस्ट अच्छी लगे तो इसे शेयर भी करें.आज के बुरे हाल में होने के लिए मुस्लमान खुद ज़िम्मेदार हैं,मुसलमानो में धार्मिक मतभेद उन्हें बहुत नीचे तक गिराता जा रहा है,अब ये मुसलमानों का धार्मिक मतभेद खत्म भी होने वाला नहीं है.

No comments

Powered by Blogger.